लेखक जीवन के विरोधाभासी आयामों के बीच शक्तिशाली संबंध पर प्रतिबिंबित करते हैं जो किसी व्यक्ति मे भय उत्पन्न करता है और पूर्णता प्राप्त करने में रुकावट बनता है।
आस्था, विश्वास, उम्मीद, भरोसा; शायद इसी पर चलती है दुनिया। सारे काम शायद यकायक रुक जाएँ, ठहर जाएँ अगर रोजमर्रा के कामों और लेंन देंन में बिश्वास और ईमानदारी न हो। सत्य, निष्ठा, और ईमानदारी का परिपालन जीवन को परिपूर्ण और अत्यंत सुगम व सरल बना देता है। हम नित्य अपनी अतृप्त इच्छाओं को तृप्त या पूर्ण करने हेतु अनेकानेक झूठ व असत्य का सहारा लेते हैं। कभी कभी तो हम इन अतृप्त इच्छांओं की पूर्ति हेतु किसी असुरक्षित ,अप्रमाणिक या अनिश्चित रस्ते का चयन कर लेते हैं। हमारी कौतुहल, उत्सुकता हमें विवस कर देती है; या अपने वस में कर लेती हैं। हम इनके गुलाम भर बन कर रह जाते है, हम अपने रस्ते और मंजिलों के चुनाव से बंचित कर दिए जाते हैं और हमें इसका पता भी नहीं होता।
अनंत इच्छाएं; और इनसे पनपी उत्सुकता और कौतुहल, और फिर कुछ कर लेने अथवा कुछ पा लेने की चाहत हमें कभी कभी धोखे का शिकार बना देती हैं। अक्सर अज्ञानता या अनुभवहीनता के कारन हम किसी बहुत बड़ी मुसीबत में फंस जाते हैं। आज हर मोड़ पर शिकारी दरिंदे घात लगाये बैठे हैं, उन्हें तो बस हमारी एक गलती का इंतजार है, इधर कोई पाँव फिसला नहीं की; उनकी मन्नत जैसे पूर्ण हुई।
धोखा, अबिश्वास और घात लगाए दरिंदों की आपेक्षा से हमें अपने उत्सुकता या खोजी प्रवृति का परित्याग कदाचित नहीं करना चाहिए। खोज की प्रवृति, कौतुहल, उत्सुकता; प्रकृति की अनमोल नेमत हैं, इनका परित्याग कदाचित कल्याणकारी नहीं हो सकता। उत्सुकता, खोजी प्रवृति का परित्याग न ही व्यक्तिगत स्तर पर न ही सामाजिक स्तर कभी कल्याणकारी हो सकता है। हमारी इच्छाएं कभी तो सम्पूर्ण जन मानस के कल्याण की होती है और कभी बिलकुल ही तुच्छ और व्यक्तिगत। यह अनंत संघर्ष अपने आपसे निरंतर और असीम है। इन्ही सीमाओं के मध्य हमारी मंजिलें हैं, तृप्ति है पूर्णता है, जिनकी नित्य हम कल्पना करतें है।
अकल्पनीय कुछ भी नहीं है, असंभव कुछ भी नहीं है, अकारण ही हमारी अज्ञानता या अनुभवहीनता रास्तों पर रोड़े अटकाती रहती है। कौतुहल और आनंद की कल्पना तो कभी कभी अपनों को भी पराया कर देते है, अपने भी जैसे जान के दुश्मन जान पड़ते हैं। क्या सही क्या गलत, कौन अपना कौन पराया इसका निर्णय अत्यन जटिल हो जाता है।
यह कैसी विडम्बना है क्या करें क्या न करें, निश्चितता, वफादारी, ईमानदारी , वचनबद्धत्ता और निष्ठा को कैसे परखें, कैसे जानें कैसे समझे, कोई इसकी प्रमाणन की विधि बता दे जिससे हम स्वतः अपनी जरुरत के समय इनका परिक्षण कर सकें। प्रमाणिकता प्रमाणन विधि का अभाव अंदर एक डर और भय का संचार करता है। एक भय अनजाने का, एक भय अजन्मे का। हमारा यही भय हमारे कौतुहल, हमारी उत्सुकता और हमारी खोजी प्रवृति का खूनी है।
एक सामंजस्य लाना ही होगा, इस अनंत संघर्ष को अब मिटाना ही होगा, स्वानंद और कल्याण के मध्य समन्वय और समायोजन करना ही होगा। आज हमें जीना भी होगा आज हमें मरना भी होगा, कुछ पाना है तो कुछ खोना भी होगा। घुट घुट के जीना छोड़, आज हमें कुछ करना होगा; ताकि हम निरंतर अपने उत्सुकता कौतुहल और प्रवृति को बिना किसी डर, भय अथवा संशय के कर पाएं, जी पाएं।
कितना लगता है जब हम अपनी सुरक्षा सावधानी, और संरक्षण के विषय में सोचते हैं। मेरी जीने की चाहत, खुद जान पाने की चाहत, अपनी अतृप्त इच्छाओं को संतुष्ट करने की चाहत, दुनिया में अपने लिए और कुछ सबके लिए कुछ खोज लाने की चाहत, कुछ अच्छा कर गुजरने की चाहत, कुछ देने की और कुछ लेने की चाहत; मेरी इन अनंत इक्छाओं का कोई हर रोज गाला घोंटता है, कोई तो इनका मन मर्दन भी करता है। मैं मूक होकर देखता हूँ, सुनता हूँ, समझता हूँ। पर कुछ कर नहीं पाता कुछ बदल नहीं पता, एक डर का बंधन एक भय का साया सा है मेरे इर्दगिर्द जसका सामना मैं हर वक़्त करता हूँ।
निरंतर एक अंतर्द्वंद है, मेरी लड़ाई खुद से है, जंग मेरी शांति से है, दोराहे पे खड़ा हूँ, राह कौन सी चून लूँ, कुछ समझ आता नहीं, क्या करूँ किधर जाऊं। कुछ लोग निरंतर हर आनंद को देने का अस्वाशन देते है जिसकी परिकल्पना से मै अविभूत हूँ, चाहतों को परिपूर्ण करती ये आशाएं विवश करती है मुझे, एक बंधन, डर का जो है जीत उसपे पा लिया। मानमर्दन से उत्पन्न भय को दरकिनार आज मैंने कर दिया। अनजान ये राहे मगर उन डरावने सपनो से कोसो दूर है, गुजरा है जो मेरे साथ मेरा अतीत शायद भूला सकूं उन्हें और अनुभव करू आनंद का। रास्ते ढूंढे है हमने, अब मै इनपर चलना चाहता हूँ, परखना चाहता हूँ। कोई इसमें खलल डाले मुझे ये मंजूर नहीं।
फिर भी एक भय सा है, अनसुना अनजाना सा, क्या करूँ क्या न करूँ ऐ मन विश्वाश, ईमानदारी, निष्ठा और सुरक्षा की सभी अस्वाशन और गारंटी देते है, अब स्वेत और अश्वेत का फर्क भी मुझे पता लगता नहीं।
कहीं तो मेरी खुद इच्छाओं ने भी गुमराह किया है तो कही दुनिया ने, धोखा दिया अपनों ने मुझको और लूटा भी मुझको क्यूंकि मै कमजोर था। आज मै फिर से दोराहे पर खड़ा हूँ, राह चूनू कौन सी। मन मेरे इतना बता दे दोस्त इनमें कौन है, मिल गया जो दोस्त मुझको राह की परवाह नहीं।
लेखक: डॉ अंशुमन कुमार
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