नारायणी-गंडक नदी के तट पर बसा गाँव नगदहा, हमारे पुरखों की यादों को समेटे हमारे अस्तित्व का गवाह है। वहां रहने-जीने-सीखने की यादें हमारी धरोहर है। आज भी हम वहां से कटे, उखड़े या बिछुड़े मानुष की श्रेणी में नहीं हैं बल्कि वहां से जुड़े रहने का सुख लूट रहे हैं।

जीवन की निरंतरता के लिए परिवर्तन आवश्यक होता है लेकिन परिवर्तन की सार्थकता की जांच करते रहनी चाहिए। मेरे गांव नगदहा में सब कुछ वैसा ही है जैसा मेरे बचपन में था, ऐसा नहीं है। मेरे गांव ने भी समय के साथ कदमताल किया है और कर रहा है। कुछ यादें ऐसी होतीं हैं जिन्हें हम संजो कर रखना चाहते हैं और किसी भी परिस्थिति में उसमें परिवर्तन के हिमायती नहीं हो पाते हैं। निश्चित ही यह नितांत निजी होता है या हमारे अपने-अपने हिस्से का सच होता जो चित्र की भांति हमारी स्मृति में रहता है। ऐसी ही कुछ स्मृतियां मेरी भी हैं जो यथावत बनी रहना चाहती हैं लेकिन बदलाव की बयार से अछूती नहीं रहीं। मैं उन चित्रों-दृश्यों को साझा कर रहा हूं।

दृश्य-1:

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अभी सुरुज देवता के दर्शन नहीं हुए हैं,ना ही उनका रथ दीख रहा है लेकिन गाँव के हर टोले से स्त्रियों की टोली दैनिक क्रिया और स्नान करने के लिए नारायणी नदी की ओर चल पड़ी है। वे लौटती होती हैं तो हम बच्चों की टोली नारायणी की ओर जा रही है। नदी में नहाने का सुख और पानी में खेले जाने वाले दर्जनों खेल हम बच्चों के लिए आकर्षण का केन्द्र हैं। बच्चे लौट रहे हैं तब गाँव के बड़े- बुजुर्ग नदी की ओर बढ़ रहे हैं। बच्चों ने देरी कर दी तो सुबह की पहली डांट का जलपान मिलता है, जल्दी जाओ नहीं तो स्कूल जाने में देरी होगी।

अब भी याद है, नदी नहाने जाने वाली दादी, माँ और फूआ-बहनों की टोली नदी से लौट कर आते ही जलपान-भोजन की तैयारी में लग जातीं थीं। हम बच्चे लौटते और जलपान करके स्कूल चले जाते। हाँ,नदी स्नान के इस दैनिक कार्य में एक बात खास थी कि हर टोली के साथ गांव के एक वयस्क जरुर रहते थे ताकि किसी तरह की दुर्घटना में वे मददगार हो सकें। शायद, बड़ों में इसके लिए एक अलिखित नियम था कि कौन किस दिन जायेगा इस डिप्टी में।

हमारा यह गांव नदी किनारे का गांव, बाढ़ की समस्या हर साल। ऐसे में, नदी नहाने जाने का एक उद्देश्य यह भी था कि सभी को तैरना आना चाहिए ताकि बाढ़ में पोरसा भर पानी में तैर कर हम अपनी जिंदगी बचा पायें। तब,सभी लड़के-लड़कियों को किसी बड़े की देखरेख में तैरना सीखना अनिवार्य सा था। मुझे याद है,जो बच्चे नदी किनारे छाप-छुप करते नहाते रहते, तैरने से डरते थे उन्हें उठा कर हमारे बड़े गहरे पानी में धकेल देते,वह हाथ-पांव मारता किनारे की ओर बढ़ता। तैरना जानने की पहली शर्त पूरी करता,भय भाग जाता, धीरे-धीरे वह भी नदी की धार से अठखेलियां करने लगता। हाँ,यदि कोई डूबने की स्थिति में आ जाता तो हमारे बड़े जो हमें तैराकी सिखाने के अघोषित प्रशिक्षक थे उसे बचा लाते। यदि इस क्रम में उसने पानी पी लिया हो तो उसे बालू पर सुला कर उसके पांव को ऐसे ऊपर-नीचे करना कि उसके मुंह से पेट में गया पानी निकल जाए। कुछ निर्लज्ज होते थे तमाम उपायों के बाद भी तैरने में अक्षम। अब लगता है कि तब जो किया जाता था वह उनका मनोवैज्ञानिक उपचार था। बड़े कहते थे कि पानी में तैरने वाला जिंदा भौंरा पकड़ कर उसे पानी के साथ पी जाओ, तैरना आ जायेगा। कई पर यह प्रयोग सफल होता था। हम नदी नहाने जाते हुए अपने गांव के खेत-खलिहानों, उसके स्वामी, उसमें लगी हुई फसलों, लोगों के घर, देव-देवी स्थान को जान पाते थे। यानी यह महज नदी नहान नहीं था, गांव-गिरांव की समझ देने वाला भी था।

अब, नदी नहाने जाने का यह सिलसिला समाप्त हो चुका है। गाँव के बच्चे नदी नहाने जाते नहीं तो तैरना कहां से सीखेंगे। उन्हें समझा दिया गया है कि हमारी नदी का जल अब प्रदूषित हो चुका है उसमें स्नान करना घातक है। लगभग हर घर में अब नहाने की सुविधा उपलब्ध है, प्रदूषित पानी वाली नदी में नहाने जाने की जरूरत नहीं रही। ना ही अब जरुरत है तैरना जानने की क्योंकि हमने अब आपदा प्रबंधन पाठ के अन्तर्गत बाढ़ से बचने के तमाम उपायों से परिचित करा दिया है अपने गांव के बच्चों को। परिणाम यह है कि अब हमारे गांव के बच्चे तैरना नहीं जानते। यदि बाढ़ आ जाए तो हमारी पीढ़ी वाले पोरसा भर पानी में भी तैर कर जान बचा लें, एक-दो और को अपने साथ बचा ले जायें लेकिन हमारे बच्चे आपदा प्रबंधन का पाठ पढ़कर तैयार हैं वे जानते हैं कि उनकी मदद कौन-कौन कर सकता है लेकिन तैरना नहीं जानने के कारण आधे पोरसे पानी का भी मुकाबला नहीं सकते हैं।

तब हम नदी नहाने जाते हुए गांव के खेत-खलिहानों और निवासियों के बारे में बहुत कुछ जान पाते थे जो हमारी किताबों में कहीं दर्ज नहीं था। अब बच्चे इसे कम जानते हैं। मुझे याद है हम बच्चे एक-दूसरे का घर जरुर जानते थे। एक कारण तो यह भी था कि टिफिन के बाद जो छात्र स्कूल नहीं आते थे उन्हें उठा कर लाने का आदेश छोटका मौलवी माट साहेब से मिलता था तो वहीं जा सकता था जो उस भगोड़े छात्र का घर जानता हो। उस उम्र में भला कौन पढ़ाई के प्रति इतना गंभीर था कि लगातार स्कूल में रहना चाहे। इसी बहाने स्कूल से निकलने का मौका मिल जाता था। कमाल तो यह होता कि जिस भगोड़े को हम टांग कर लाने जाते वह नहर या पोखरा में बंसी लटकाए मछली की टोह में ध्यान लगाये मिलता। बिना किसी किताबी ज्ञान के फिर बारगेनिंग का काम शुरू होता मछली पका कर हमें भी चखाओ नहीं तो चलो छोटका मौलवी साहब के पास। लगभग बात बन ही जाती थी और हम इआर (दोस्त) हो जाते थे। घड़ी तो होती नहीं थी, सूर्य देव की आसमानी स्थिति से स्कूल की छुट्टी के समय का अनुमान लगा कर हम खाये-अघाये छात्र भगोड़े को साथ लेकर जैसे स्कूल में पहुंचते माट साहेब लोग रजिस्टर बाकस में रखते जाने की तैयारी में मिलते। छोटका मौलवी साहब का आदेश मिलता अच्छा आज छोड़ देते हैं कल इसकी दवाई होगी। इस सुख के लिए हमें एक-दूसरे का घर जानना जरूरी था अन्यथा यह सुख हाथ नहीं लगता। दो-तीन साल की बात है मैं गांव में था। उत्सुकतावश स्कूल से लौटते कुछ बच्चों से बातचीत करने लगा। बातचीत के क्रम में ही उनसे नदी ना नहाने जाने की सूचना मिली वहीं उस टोली में एक-दुसरे का घर जानने वाले बच्चे कम ही थे।

अब जरुरी नहीं रहा एक-दूसरे का घर जानना क्योंकि शिक्षक घर-घर जाकर सर्वेक्षण कर लेते हैं। टिफिन के बाद या स्कूल नहीं आने वालों को पकड़ कर लाने की हिम्मत कौन करेगा,बवाल ना हो जाए। सुविधा प्राप्ति के लिए हो सकता है उस बच्चे का नाम सरकारी स्कूल में दर्ज हो लेकिन वह नियमित अध्ययन के लिए सिरनी, मलाही, बलहां या अरेराज के किसी गुड मॉर्निंग सीखाने वाले सी.बी.एस.ई. से मान्यता प्राप्त या मान्यता पाने की प्रतीक्षा वाले स्कूल में जाता हो।

दृश्य-2:

किसी भी पर्व-त्योहार में गांव की याद आज भी बरबस आ ही जाती है। स्कूल में गणेश चौथ जिसे हमारे गांव में चक चंदा कहा जाता था, एक अद्भूत पर्व था। उस दिन स्कूल के सभी छात्र हाथ में लकड़ी का ठकरा लिए गाते-बजाते गांव के हर घर में जाते थे। एक के माथे पर पीतल के परात में गणेश जी की मूर्ति रखी रहती,फूल-माला से लदी। आगे-आगे गणपति और पीछे उनके चेले हम। हर घर से कुछ ना कुछ मिलता ही था, अनाज या पैसा। यह सब हमारे गुरुओं के बीच बंट जाता था। यह उस दक्षिणा का बड़ा रुप था जो प्रत्येक शनिवार को हम स्कूल में देते थे। इसे शनिचरा कहा जाता था। हम सभी छात्र उस दिन अपने गुरुओं को देने के दक्षिणा ले जाते थे, अनाज या चवन्नी। अपने स्लेट पर माथा रखकर प्रार्थना करते। तब तक हमारे राज्य के प्राथमिक स्कूलों का पूर्ण सरकारीकरण नहीं हुआ था। हमारा यह प्राथमिक स्कूल भी हमारे गांव के बड़ों द्वारा 1885 ईस्वी में खोला गया था। ब्रतानी सरकार से कोई मदद नहीं मिली थी। किसी ने अपनी जमीन दी तो किसी ने खर-बांस, कुछ लोगों ने श्रमदान से झोपड़ी बना दी और आसपास के एक-दो स्कूली शिक्षा प्राप्त माट साहेब बने। यहां पढ़ने और पढ़ाने वालों की जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी हमारे गंवई समाज की थी। स्कूल, स्थानीय समुदाय द्वारा संचालित संस्था था। बाद के दिनों में जिला परिषद से कुछ अनुदान मिलने लगा था जिससे स्कूल और शिक्षकों की ज़रुरतों को पूरा नहीं किया जा सकता था अतः शनिचरा और चक चंदा सामाजिक सरोकार कायम रखने का जरिया था। समाज का नियंत्रण स्कूल पर था।

मुझे बचपन की एक घटना याद आती है,बाबा नदी से स्नान करके लौटते हुए कई बार स्कूल में रुक कर शिक्षकों से हालचाल पूछते तो कभी कभी हम बच्चों से कुछ सवाल भी पूछते थे। उस दिन आये तो निराला माट साहेब नहीं थे। उन्होंने हमारे हेडमास्टर सिंघासन माट साहेब से पूछा कि निराला माट साहेब नहीं दिखाई दे रहे हैं। सिंघासन माट साहेब को भी निराला माट साहेब के नहीं आने का कारण शायद ज्ञात नहीं था उन्होंने अनभिज्ञता जाहिर की। बाबा चले गए। लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है कि रात में एक ही लालटेन के चारो तरफ मेरे साथ मेरे चार चचेरे भाई-बहन अपना-अपना पाठ याद कर रहे थे उसी समय निराला माट साहेब दरवाजे पर दिखाई दिए। मेरा मन धड़का कि कहीं मेरी शिकायत तो करने नहीं आ गए क्योंकि एक दिन पहले उन्होंने हमें चेचक का टीका पर पांच लाईन लिखने को कहा था, मैं पढ़कर गया नहीं था इसलिए कुछ उटपटांग लिख दिया था। निराला माट साहेब बड़े नाराज हो गए थे और कहे थे कि बाबा से मेरी शिकायत करेंगे कि मेरा मन पढ़ने में नहीं लगता है। उहापोह में मैं फंसा था कि माट साहेब ने श्याम भैया से बाबा के बारे में पूछा, बाबा ने सुन लिया और पास की अपनी कोठरी से निराला माट साहेब को अंदर बुला लिया। उनके बीच कुछ बातचीत चल रही थी पूरा तो नहीं सुन पाया था लेकिन बाबा को यह कहते सुना कि काम जरुरी था तब भी हेडमाट साहेब को ख़बर कर देना चाहिए था। अब सोचता हूं कि तब ना मोबाइल था ना कोई अन्य ऐसा यंत्र तो आखिर निराला माट साहेब को सूचना कैसे मिली होगी कि बाबा स्कूल में आए थे और आपके बारे में पूछ रहे थे। सूचना मिली थी तब तो वे आकर बाबा को अपने बिना पूर्व सूचना के अनुपस्थित रहने का कारण बता रहे थे। यह इस बात का प्रमाण हो सकता है कि समाज की आंखें स्कूल पर रहतीं थीं और समाज जानता था कि स्कूल में क्या कुछ चल रहा है तभी उसकी जिम्मेदारी भी उठाता था।

अब,यह पूर्णतः सरकारी प्राथमिक स्कूल है और इसमें पढ़ाने वाले शिक्षक नियमित या नियोजित सरकारी शिक्षक। हो सकता है इनकी काबिलियत हमारे बचपन के गुरुजनों से अधिक हो क्योंकि ये प्रशिक्षित हैं। लेकिन अब यह स्कूल समाज की जिम्मेदारी की सूची से बाहर हो गया है। सामाजिक नियंत्रण ना के बराबर है। पहले समाज स्कूल को देता था अब इस फेर में दुबला होता रहता है कि स्कूल में चलने वाली सरकारी योजनाओं से उसे क्या मिलेगा? पहले वह ‘दाता’ था अब ‘पाता’ हो गया है। मेरे गांव के निरक्षर -शिक्षितों ने अपनी भावी पीढ़ी को ज्ञानवान बनाने के लिए अपनी मेहनत से स्कूल के लिए जो झोपड़ी खड़ी की थी उसी स्कूल के सरकारी योजना के अंतर्गत पक्का भवन बनाने का मौका हाथ लगा तो शिक्षित ठीकेदार-इंजीनियर ने इसकी छत कमज़ोर बना डाली और भवन निर्माण का पैसा डकार कर काम को अधूरा ही छोड़ दिया।

दृश्य-3:

“वो मेरे बचपन का स्कूल,ओ कच्ची सड़कें उड़ती धूल वो मेरे खेत मेरे खलिहान, मैं उनको ढूंढ रहा हूं” कभी भाई अरुण गोपाल की संगीत संगत में इन पंक्तियों को सुना था आज इसे ही आधार बनाकर अपने गांव नगदहा में हुए बदलाव को परखता हूं। मेरे बचपन का स्कूल,जिसकी शुरुआत ‘मनोहर पोथी’ से हुई थी। यह एकमात्र किताब जो वर्णमाला,पहाड़ा, गिनती, हिन्दी के शब्द, सवैया, डेढा के मानक, सिखाने में सक्षम थी। आगे ‘रानी मदन अमर’ से भेंट हुई और फिर हिंदी तथा गणित की किताब अलग-अलग हाथ लगी थी। पांचवीं कक्षा तक अंग्रेजी से मिलना नहीं हो सका था। एक किताब से परिवार के कई बच्चे तब पढ़ लेते फिर ये किताबें गांव के उन बच्चों तक भी पहुंच जाती थी जिनके अभिभावक किताबें नहीं खरीद सकते थे लेकिन उनका बच्चा स्कूल में जाता था। अब वह स्कूल सरकारी स्कूल है,उसकी पाठ्यचर्या बनी है पटना में, बाल केन्द्रित सिद्धांतों के आलोक में। पहली कक्षा से ही तीन किताबें अंग्रेजी सहित। प्रत्येक बच्चे के लिए अलग-अलग किताबें जो सिर्फ एक साल के लिए जायज हैं। इन किताबों से उनके बाद के बच्चे नहीं पढ़ सकते हैं उन्हें अलग से किताबें या किताबें खरीदने के लिए राशि मिलती है सरकार से। कहां तो हम एक किताब से पढ़ने वाले कई और आज शिक्षा के अधिकार कानून की दुहाई देकर हर साल प्रत्येक बच्चे के लिए नई किताब की व्यवस्था। पर्यावरण के बुरे हाल का रोना भी और यह भी कहना कि कागज बनाने के लिए पेड़ों की कटाई करनी पड़ती है। यह भी सच है कि तब किताबें जल्दी नहीं बदलतीं थीं। अब तो सत्ता बदली तो पहले की किताबों की खैर नहीं। आदर्श और मानक बदल जाते हैं और नई पीढ़ी तक उसकी पहुंच सुनिश्चित करने के लिए किताबें बदल जातीं हैं।

हमारे बचपन के स्कूल सामाजिक गतिविधियों, शादी समारोहों के गवाह होते थे। चूंकि इनका संचालन स्थानीय समुदाय के हाथ में था अतः वे साधिकार इसका उपयोग करते थे। किसी की बारात ठहरनी हो तो स्कूल भवन की थोड़ी मरम्मत तथा रंगाई हो जाया करती थी। अब इसके लिए अलग फंड है। कोई बारात नहीं ठहर सकती क्योंकि प्रशासन से अनुमति लेनी होगी। संभव है, बारात के बिदा हो जाने के बाद अनुमति मिले तो वह भी नकारात्मक। फलत: टेंट हाउस वालों के पौं बारह हो गये हैं। किसिम-किसिम के पंड़ाल सजने लगे हैं जो अपनी चमक से उस व्यक्ति के बड़े होने का प्रमाण देतीं हैं जिन्होंने उसे किराया पर लगा रखा है।

तब गांव के सभी बड़े-बुजुर्ग को यह हक़ था कि वे किसी भी बच्चे से सवाल पूछ सकते थे। स्कूल से लौटते हुए हम देखते रहते थे और ईश्वर से प्रार्थना करते थे कि हे भगवान, उस बाबा या काका से भेंट नहीं हो जो उटपटांग सवाल पूछते थे। वास्तव में ये उटपटांग सवाल नहीं होते बल्कि आज के क्वीज के देशज या गंवई संस्करण थे जो किताबों के पन्नों से बाहर लाकर सीखने का अवसर देते थे। हम स्कूल से लौट रहे हैं कि कोई बड़े रास्ते में मिल गये। सभी बच्चों को रोक लिया और पूछा ‘पान टके ढोली’ तो एक ढोली पान का दाम? जो अपने को तेज समझते वो झट से ज़वाब देते पांच रोपये ढोली। प्रश्नकर्ता मुस्काते, फिर से सवाल दुहराते, जब हम हथियार डाल देते तो जवाब बताते ‘एक टका’ व एक रुपया। उत्सुकता बढ़ती, हम पूछते वो कैसे? फिर वो समझते, देखऽ सं लइका, हम का पूछनी, पान टके ढोली, इसमें टका का मतलब एक रुपया है। अपने उन साथियों से इस सवाल का जवाब पूछने की ललक जगती थी कि कल फलां से यह सवाल पूछकर उसको मूरख घोषित किया जायेगा। फिर तो अगले दिन स्कूल जाने का एक और मक़सद जुड़ जाता था। ऐसे कितने सवाल हमारे बड़ों ने हमसे पूछे जो आज भी हमारी स्मृति का हिस्सा हैं। लेकिन कभी भी हमारे अभिभावकों ने किसी और के द्वारा सवाल पूछने पर कोई सवाल नही उठाया उल्टे बाबा या चाचा कह जाते कि बचवा हिसाब में कमजोर है तो उस पर ध्यान दिया जाता था।

आज मेरे गांव के सभी बच्चे जन्मजात चक्रवर्ती होते हैं। किसी बच्चे से सवाल पूछिए और वह उसका जवाब नहीं दे सके तो अभिभावकों को बुरा लगता है। फिर सवाल पूछने वाले कि जाति देखी जाने लगती है कि उसने जानबुझकर हमारे बच्चे को नीचा दिखाने की कोशिश की। अब सवाल पूछने वाले बड़ों के लिए स्थान न्यून हो गया है। कद्र उनकी बढ़ी है जो किसी जुगाड़ से आपको नौकरी दिला सकें, उनकी घटी है जो आपको हुनरमंद बना सकें।

हां, स्कूल जीवन की एक खास बात और याद आई। तब हमारी किताब की भाषा तो हिंदी थी लेकिन शिक्षक समझ की भाषा के रूप में हमारी मातृभाषा भोजपुरी का ही उपयोग करते थे। बुझाइल की ना? से जो बात आगे बढ़ती वह संवाद भोजपुरी में ही होता था। तब स्थानीय शिक्षक ही होते थे जिनकी मातृभाषा भोजपुरी ही थी अतः दोनों पक्ष एक ही अखाड़े के पहलवान थे। अब स्थिति और मानसिकता दोनों ही बदल गई है मेरे गांव की। नियोजन के द्वारा अंकों के आधार पर बहाल शिक्षकों की मातृभाषा कुछ और हो सकती है जो उन्हें भोजपुरी भाषा में समझ बनाने का अवसर नहीं देती। साथ ही साथ अपनी भाषा छोड़ने को हमारे गांव ने भी विकास का प्रतीक बना लिया है। अभिभावकों को लगता है कि उनका बच्चा यदि भोजपुरी बोलेगा तो हिंदी-अंग्रेजी नहीं सीख पायेगा और इस कारण पिछड़ जायेगा। डॉ.राजेन्द्र प्रसाद जी की जीवनी भी उन्हें इस मतिभ्रम से बाहर निकालने में सक्षम नहीं है। फलत: स्कूल जाने वाले बच्चे भोजपुरी बोलने से परहेज़ करतें हैं कि और उनके माता-पिता इससे प्रसन्न होते हैं। एक छोटे बच्चे से मैंने भोजपुरी में अपनी बतकही शुरू की तो उसने कहा कि आप स्कूल पढ़ने नहीं जाते हैं क्या? बच्चा समझ रहा है कि स्कूल जाने का मतलब भोजपुरी बोलना नहीं है जो उसकी दादी बोलतीं हैं। भाषाओं के संरक्षण के लिहाज से यह एक बड़ा फर्क अब गांव में दीखने लगा है। मेरे बचपन के शब्द- छीपा, थरिआ, छिपुली, कचोरा, कचोरी, कपरबत्था, गोजी, पैना, सटहा, बपसी, माई-बाबू और ऐसे सैंकड़ों शब्द अब अस्तित्व में नहीं हैं।

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लेखक: डॉ. ज्ञानदेव मणि त्रिपाठी
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